इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 9 हिंदी के पाठ पाँच ‘भारतीय चित्रपट : मूक फिल्मो से सवाक फिल्मो तक’ (Muk Filmo Se Sawak Filmo Tak) के सारांश और व्याख्या को पढ़ेंगे।
पाठ 5
भारतीय चित्रपट : मूक फिल्मो से सवाक फिल्मो तक
अमृतलाल नागर
लेखक – परिचय :- महान कथाकार अमृतलाल नागर
नागर का जन्म आगरा जिला अंतर्गत गोकुलपुरा में 17 अगस्त 1916 को हुआ था। नागर जी मूलतः गुजराती थे। गोकुलपुरा उनके ननिहाल था।नागरजी के पिता की मृत्यु के बाद उनके पितामह पंडित शिव राम नगर लखनऊ वासी हो गए।आर्थिक विवसता के कारण अमृतलाल ने हाईस्कूल तक शिक्षा पाई, लेकिन निरंतर स्वध्याय द्वारा साहित्य,इतिहास पुराण,समाजशास्त्र,मनोविज्ञान आदि विषयों का गहन अध्ययन किया तथा कई भाषाओं पर अपना अधिकार जमा लिया। अध्यापन के बाद नौकरी करने लगे। किंतु कुछ ही दिनों के बाद नौकरी छोड़कर मुफ्त लेखक एवं हास्य रस के प्रसिद्ध पत्र “चकल्लास “के संपादन करने के बाद मुंबई और चेन्नई के फिल्म क्षेत्र में लेखक कार्य करने लगे।
रचनाएँ :- नागरजी की मुख्य रचनाएं हैं :
उपन्यास :- महाकाल सेठवा के लाल, बूंद और समुद्र, सुहाग के नूपुर अमृत और विष मानस का हंस आदि।
कहानी एवं रेखा चित्र :- वाटिका,अवशेष, नवाबी मसनद,तुलाराम शास्त्री,आदमी नहीं नहीं,एक दिल हजार दास्तां, पांचवा दास्ता, और सात अन्य कहानियां आदी।
रिपोतर्ज एवं संस्मरण :- गदर के फूल,एक कोठे वालियाँ आदि।
अनुवाद :- विसाती प्रेम की प्यास, आंखों देखा गदर आदि।
निबंध :- फिल्म क्षेत्र रंग क्षेत्र आदि। Muk Filmo Se Sawak Filmo Tak
बाल साहित्य :- नटखट चाची निंदिया,आजा बजरंगी नवरंगी, बाल महाभारत आदि।
नागर जी को बूंद और समुद्र, पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बटुक प्रसाद पुरस्कार ‘सुहाग के नूपुर ‘ पर उत्तर प्रदेश शासन का प्रेमचंद पुरस्कार ‘अमृत और विष’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला।
पाठ – 5
भारतीय चित्रपट : मूक फिल्मो से सवाक फिल्मो तक
प्रस्तुत पाठ ‘ भारतीय चित्रपट : मुक फिल्मों से सवाक फिल्मों तक’ एक निबंध है। यह निबंध अमृतलाल नागर के द्वारा लिखा गया है। अमृतलाल नागर हिंदी के युग प्रवर्तक साहित्यकार होने के साथ-साथ फिल्म लेखन से भी जुड़े थे। इस निबंध में भारतीय फिल्म के उद्भव और विकास की कथा कही गई है।
6 जुलाई 1896 का दिन देश तथा खासकर मुंबई के लिए एक अनोखा दिन था क्योंकि इसी दिन भारत में सिनेमा दिखाया गया। अखबार में विज्ञापन निकला कि जिंदा तिलारमत,देखिए टिकट एक रुपया। विज्ञापन ने मुंबई की जनता को तहलका मचा दिया। मुंबई में आज कहां प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम है। उसी के आसपास वाटसन होटल में भारत का पहला सिनेमा प्रदर्शन हुआ। फ्रांस के ल्यूमियेर ब्रदर्स के एजेंट ने इसे दिखाने के लिए भारत लाए थे। इससे पहले फ्रांस तथा अमेरिका में इसका प्रदेश प्रदर्शन हो चुका था। उस समय सिनेमा आज की तरह किसी कहानी पर आधारित नहीं होता था। इसकी तस्वीरें छोटी – छोटी थी जिसमें समुंद्र स्नान, कर खाने से निकलते मजदूर आदि के दृश्य थे।
मुंबई में इस दिशा में कामकाज शुरू करने के लिए दो एक विलायती कंपनियाँ अपने प्रोजेक्टर तथा कैमरे यहां लाई।1897 ई. में रुपहले पर्दे पर रक्षाबंधन का त्योहार, दिल्ली के लाल किले,अशोक की लाट आदि के दृश्य दिखाए गए। उस जमाने में इसे बायोस्कोप के नाम से पुकारा जाता था।
भारत में सर्वप्रथम एक सावे दादा थे, जिनका नाम कुछ और था ने काम आरंभ किया।लेखक को इनसे मुलाकात स्वर्गीय मास्टर विनायक की फिल्म ‘संगम’ लिखने के क्रम में शालिनी स्टूडियो,कोल्हापुर में हुई थी। उनकी शारीरिक बनावट ऐसी थी कि इन्हें देख कर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि यह अपने जमाने के श्रेष्ठ कैमरामैन तथा भारतीय फिल्म व्यवसाय के आदि पुरुष रहे होंगे। इन्होंने ल्यूमियेर ब्रदर्स के प्रोजेक्ट तथा मशीनें खरीद कर भारत में इस धंधे पर एकाधीपत्य जमा लिया था। इन्होंने छोटी – मोटी अनेक फिल्में बनाए, जिनमें कुछ सामान्य नेताओं पर भी थी लेकिन फिल्म उद्योगों के असली संस्थापक दादा साहब फाल्के माने जाते हैं। इन्होंने ‘हरिश्चंद्र’ पर फीचर फिल्म बनाई। इसके बाद इन्होंने फीचर फिल्म की झड़ी लगा दी। भारत सरकार ने भी फिल्म के सर्वोच्च पुरस्कार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार कहकर इतिहास की वंदना की है। सन्1940 ई. में किशोर साहू की पहली फिल्म ‘बहुरानी’ का उद्घाटन दादा साहब फाल्के नहीं किया था। लेखक का फिल्मी दुनिया से संबंध स्थापित कराने वाले ‘बहुरानी’ फिल्म के अर्थपति स्वर्गीय द्वारकादास डागा थे। Muk Filmo Se Sawak Filmo Tak
दादा साहब फाल्के दबंग तथा जोशीले तथा आत्मप्रशंसक थे,किंतु उनकी विशेषता यह थी कि वह नई ‘पीढ़ी’ के महत्व को नकारते न थे। इसलिए उन्होंने व्हि शांताराम देवकी बोस मुक फिल्म के निर्देशक आनंद प्रसाद मुक्त कंठ से कि है। दादा साहब अपनी फिल्मों के निर्माता, निर्देशक,लेखक, कैमरामैन, प्रोसेसिंग,डेवलपिंग करने वाले प्रचारक वितरक सब कुछ एक साथ थे। लेखक ने राजा हरिश्चंद्र फिल्म देखी थी। जिसमें हरिश्चंद्र की रानी का पाठ मास्टर सांडू को ही करना पड़ा था। इसका कारण यह था कि वैश्य वर्ग की कुछ महिलाएं कैमरा के सामने आने पर शरमा गई तथा कुछ को दलालों ने भगा दिया। इसके बाद ‘भस्मासुर’लंका दहन आदि फिल्म का प्रदर्शन हुआ। ‘लंका दहन’ अपने जमाने की बॉक्स- ऑफिस हिट फिल्म थी।
मुंबई के बाद एक पारसी व्यवसायी जे. एफ. मदन ने कोलकाता में मादन थिएटर कंपनी की स्थापना की। 1917 ई. से एलफिंस्टन बाईस्कोप कंपनी भी फीचर फिल्म बनाने लगे। 1913 ई. से 1920 ई. तक फिल्मों में अधिकतर पौराणिक कथाओं पर आधारित फिल्में बनी। 1930 ई. के आसपास सबसे महान फिल्मी हस्ती बाबूराव पेंटर थे,जो प्रसिद्ध निर्माता निर्देशक व्ही. शांताराम, बाबूराव पेंढारकर,भालजी पेंदारकर तथा मास्टर विनायक गुरु थे। उनकी बनाई फीचर फिल्म ‘सावकार पास ‘(साहूकार का फंदा) अपने समय की प्रसिद्ध फीचर फिल्म थी। इसी अवधि के नामी फिल्मी स्टार है, जिल्लो जुबेदा, मास्टर बिटबल, ई.बिलिमोरिया, डी. बिलिमोरिया गोहर सुलोचना, माधुरी जाल मर्चेंट,अर्मलीन,पृथ्वीराज कपूर आदि इस दशक के अंत में इंपीरियल फिल्म कंपनी ने भारत की ‘सौटक्का’ नाचती, गाती, बोलती, फिल्म ‘आलम आरा’ का निर्माण किया।मादन की बोलती फिल्म ‘शीरी – फरहाद’ भी इसी समय की है।
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